इक काम करो
एक काम करो |
खाते जो हो तो माटी है,आँगन भी ये कर जाती है।
नित नीर भी है, तो चीर भी है, गर इसकी तुम पहचान करो।
कुछ और न हो जो दे पाओ, इस देश को तुम इक काम करो।।
जब सरहद वाले पतझड़ में ,दूर कही उस सीमा पर,
कदमो को जैसे काठ किए,आँखों को मानो टाक दिए,
फिर धीरे-धीरे,तिनका-तिनका, भारत की गरिमा पर,
सब कुछ जिसने है वार दिया, उन वीरो का सम्मान करो।
कुछ और न हो जो दे पाओ, इस देश को तुम इक काम करो।।
और लहराती इन फसलों में,हरे भरे जो मीत सजे,
कहे फड़ -फड़ करती चिड़िया, तो नन्ही सी घर की गुड़िया भी,
ये देश जहा रंग सादा भी, शांति का पावन रीत लगे,
और देकर अपना कतरा -कतरा,रंगो से लिपटी चादर में,
इक शहीद ने है कमाया,जो उस केसरी का अभिमान करो।
कुछ और न हो जो दे पाओ, इस देश को तुम इक काम करो।।
जब छिप करके किवाड़ों से, मौसम बरसाती जाड़ो में,
कभी होती है अनजाने में, कभी सहकर ताका झांकी भी,
क्यों लिखते हो ? ये नादानी तुम,दिल के उन अखबारों में,
और लिखते-लिखते सपनो की, दुनिया में जो तुम खो जाओ,
हर बार नहीं इक बार सही है, इस देश को तुम मेरी जान करो।
कुछ और न हो जो दे पाओ, इस देश को तुम इक काम करो।।
क्या देखी तुमने छीना झपटी और ठग की दुनिया दारी भी,
हां रंग भरे इस महफ़िल में,होती सच्ची है यारी भी,
पर क्या होगा इन सबका, जो तुम अक्षर-अक्षर न लिख पाए,
और मन मौजी इस दुनिया के, आगे जोना तुम टिक पाए,
ये स्याही वाली कूची-काठी,इनको तुम हथियार करो,
फिर होगा सब कुछ अच्छा-अच्छा,गर शिक्षा को आधार करो,
और निसदिन तुमसे पूछेजो, कोई इस देश की राज,
बड़े शान से भी तुम कह पाओ, कुछ ऐसा भी अंजाम करो।
कुछ और न हो जो दे पाओ, इस देश को तुम इक काम करो।।
कवि :- श्री महेश कुमार बिश्वाश
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