एकांकी के तत्त्व
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एकांकी के तत्त्व
एकांकी के तत्वों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसमें तीन से लेकर दस तत्वों को माना है। पाठ्यक्रम में निर्धारित एकांकियों के अंतरगत निम्नलिखित छह तत्वों को मान्यता दी गयी है-
( १ ) कथावस्तु ( २) पात्र एवं चरित्र-चित्रण ( ३) संवाद (४) भाषा- शैली ( ५) देश-काल और वातावरण (६) उदेश्य
१ कथावस्तु
एकांकीकार जिस विशेष उददेश्य से किसी विशिष्ट भाव, विचार अथवा समस्या को अभिव्यक्ति करना चाहता है, उसी के अनुरूप कथावस्तु को आरम्भ से अंत तक घुमाव-फिराव के नाटकीय मोड़ो के बीच चमत्कार वेग के साथ गठित करता है।
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एकांकी में कथा का प्रारंभ इस प्रकार होता है कि दर्शक उसकी ओर सहज में ही आकृष्ट हो जाता है, उसमे उसका मन रम जाता है। एकांकीकार को बराबर ध्यान रखना पड़ता है कि दर्शक का मन कही भी उचटने य पाए अर्थात कौतुहलता की भावना बनी रहे और जहा यह भावना अपनी चरम स्थिति तक पहुँचती है, वही प्रायः एकांकी समाप्त हो जाता है। कथानक के नियोजन पर ही एकांकी की सफलता निर्भर करती है। वस्तुता कथानक या कथावस्तु के बिना एकांकी का कोई आस्तित्व ही नहीं है।
श्रीपति शर्मा का मानना है कि एकांकी में कथावस्तु नाममात्र को हे रहती है, परन्तु जैसे बरगद का छोटा बीज महान वृक्ष का आकर धरना कर लेता है उसी प्रकार कथा का लघु-से-लघु अंश कलाकार की सफल तूलिका से एक सुन्दर कृति चुना जाता है, जिसमे वह अच्छी या बुरी हो सकती है।
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एकांकी में मुख्यता आरम्भ, उत्कर्ष और अंत तीन कथास्थितिया होती है, लेकिन सुविधा के विचार से इसे चार अवस्थाओं में रख सकते है - (अ) आरंभ (ब) विकास (स) चरमोत्कर्ष (द ) समाप्ति अथवा परिणति।
(अ) आरंभ
एकांकी आरंभ में परिचयात्मक होता है अर्थात आरंभ की अवश्था एकांकी की कथावस्तु की पृष्ठ्भूमि तैयार करती है। मुख्य घटना, समस्या, पत्र का परिचय और उद्घाटन ही इस भाग की विशेषता है। इसके अंतगर्त यह पीठिका तैयार करनी पड़ती है, जिस पर एकांकी का अंत प्रतिष्ठित होता है। उपेन्द्रनाथ 'अश्क' द्वारा लिखित एकांकी 'लश्मी का स्वागत है ' में भाषी और माँ के मध्य हुई प्रारंभिक वार्ता एक प्रकार से एकांकी की पृष्टभूमि ही है।
(ब) विकास
विकास अंतर्गत कार्य-व्यापार अथवा संघर्ष का रूप खुलकर सामने आता है। यहाँ पात्रो, आदर्शो, अधिकारों और सिधान्तो में विरोध अथवा द्वन्द एकांकीकार दिखाना चाहता है। उसका द्वन्द संवादों के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। द्वन्द से कथानक में नाटकीय उत्पन्न हो जाती है और एकांकी रूचिकर हो जाता है।
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(स) चरमोत्कर्ष
एकांकी यहाँ परिस्थितिजन्य प्रभावों को एकत्र करता हुआ अत्यत तीव्रता से उत्कर्ष बिंदु पर पहुँचता है। इसीलिए कहा जा सकता है की एकांकी उस छोटी दौर की प्रतियोगिता की भांति है, जिसमे आरम्भ से लेकर अंत तक दौड़ की तीव्रता में कही कमी नहीं आती।
यह वह स्थल है, जहा एकांकी अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर पाठक या दर्शक की उत्सुकता को विशेष तीव्र एवं संवेदना बनाता है। यहाँ कौतुहल अपने चरम बिंदु पर पहुंच जाता है। घटना एक आकस्मिक परिणाम की और अग्रसर होने लगती है।
(द) समाप्ति अथवा परिणति
परिणति या समापन स्थल अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ पहुंचकर एकांकी अपनी सम्पूर्ण संवेदनशीलता,प्रभावोत्पादकता एवं पूर्णता का परिचय देता है। प्रभाव की पूर्णता समापन का लक्ष्य है। सारी जिज्ञासा की बृद्धि और कौतुहल की समाप्ति यही आकर होती है।
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वही एकांकी कलापूर्ण है जिसमे चरम सीमा पर ही एक गूढ़ प्रभाव की व्यंजना के साथ ही कथावस्तु समाप्त हो जाती है। जैसे डा रामकुमार वर्मा के 'दीपदान' में बनवीर के हाथो चन्दन की हत्या ही एकांकी की परिणति है।
२ पात्र एवं चरित्र-चित्रण
एकांकी के पात्रो एवं उनके चरित्रों के आधार पर ही सम्पूर्ण एकांकी के भाव एवं कलापक्ष की अभिव्यक्ति होती है। इसमें एक मुख्य पात्र होता है, शेष पात्र एकांकी की कथावस्तु के अनुसार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुख्य पात्र के चरित्र को उभारने में ही सहायक होते है।
एकांकी में पात्रो की संख्या जितनी काम होती है, उतना ही परिस्थिति का रंग उभरकर सामने आता है। अधिक पात्रो के होने से कथा और कथा की मूल संवेदना के उलझ जाने का भय रहता है। एकांकी के पात्रो का चरित्र-चित्रण एकांकीकार अपनी मौलिक रचना-प्रतिमा, शैली, संवाद आदि के आधार पर करता है।
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श्रेष्ट एकांकी में पात्रो का चयन अत्यंत सुनियोजित होता है और पात्रो के चरित्र-चित्रण में सहजता,स्वाभाविकता, सजीवता आदि का समावेश रहता है।
एकांकी के मूल भाव के अनुसार ही पात्रो के व्यक्ति, चरित्र एवं प्रवित्तियों का निर्धारण होता है। एकांकी की मूल भावना को उद्देश्य करने के लिए दो-एक गौड़ पात्रो की भी योजना एकांकीकार को करनी पड़ती है। गौड़ पात्रो के चयन में यह ध्यान रखना चाहिए कि उनमे से प्रत्येक के चरित्र में कोई-न-कोई व्यक्तिगत विशेषता अवश्य हो।
इसी विशेषता के कारण एक पात्र का दूसरे पात्र से संघर्ष होता है। भिन्न-भिन्न स्वभाव एवं संस्कार के पात्रो के पारस्परिक संघर्ष एवं संपर्क से एकांकी में सक्रियता प्रत्येक क्षण बनी रहती है। पात्रो का यही जीवन- संघर्ष विविध सन्दर्भ में प्रस्तुत करना एकांकीकार के शिल्प की कुशलता है।
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आज के बौद्धिक युग का दर्शक या पाठक चारित्रिक विचित्र को देखना व् समझना चाहता है , इसलिए एकांकी के पात्र जीते-जागते, चलते-फिरते, अपनी निजी प्रेरणा और अभिरूचि से परिचालित दिखने चाहिए. नाटकों में नायक और उसके सहायको का चरित्र-चित्रण मूलतः घटनाओ के माध्यम से किया जाता है, जबकि एकांकी के पात्रो का चरित्र नाटकीय परिस्थतियो और व्यक्ति के अंतर्द्वंद के सहारे सांकेतिक रहता है।
सच तो यह है कि एकांकी में पात्रो की चरित्रगत मूल विशेषता के उद्घाटन द्वारा ही उनके सम्पूर्ण व्यक्ति की झलक दिखाई देनी चाहिए. डॉ रामकुमार वर्मा की 'दीपदान' एकांकी की प्रमुख पात्र पन्ना धाय द्वारा अपने पुत्र चन्द्दन का बलिदान ही उसके चरित्र, स्वभाव एवं व्यक्तिगत की झलक प्रस्तुत कर देता है।
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३ संवाद
संवाद के मुख्य दो कार्य होते है- पात्रो की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करना तथा कथाप्रवाह को आगे बढ़ाना। परिस्थति एवं पात्रो को जोड़ने के लिए और आंतरिक भावो एवं मनोवृत्तिओ के उद्घाटन के लिए संवाद तत्व की भूमिका महवत्पूर्ण होती है।
आवश्यकता से अधिक वार्तालाप उबा देनेबाला होता है और औचित्य का विचार न करने की गयी संवाद- योजना एकांकी की प्रभावानन्ति में बाधा डालती है। अतः पात्र की शिक्षा-दीक्षा, देश-काल और अर्थपूर्ण एवं उसकी विचारधारा का परिचायक होता है।
एक पात्र द्वारा बोले गए शब्दों की प्रतिक्रिया दूसरे पात्रो पर होती है और वे चुभनेवाले होते है। इस तरह संवादों द्वारा कथावस्तु गतिशील हो उठती है।
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चरित्रप्रधान एकांकियों में व्यक्तित्व और उसकी प्रवित्तियों का परिचय देने के लिए संवाद अथवा कथोपकथन विशेष महत्वपूर्ण होता है। संवाद द्वारा ही चारित्रिक विशेषताए प्रकट होती है। अभिवादन, सम्बोधन, प्रेम, क्रोध आदि को व्यक्त करने के लिए औचित्य एवं मर्यादा को ध्यान में रखकर भाषा का प्रयोग आवश्यक है।
कथानक को निरंतर सक्रिय और गतिशील बनाये रखना तथा पात्रो की स्वभावगत चारित्रिक विशेषताओं को उभरते रहना और स्वाभाविक रूप से परिणित की ओर अग्रसर करते रहना ही संवाद-योजना का लक्ष्य होता है। एकांकी में प्रत्येक संवाद सप्रयोजन होना चाहिए, निरर्थक और अनावश्यक वार्तालाप को कही स्थान नहीं मिलना चाहिए।
एकांकी में जिज्ञासा और कुतूहल को जगाने के लिए बहुधा नाटकीय संवादों की योजना करनी पड़ती है। कथावस्तु, विषय प्रतिपादन एवं योजना की दृस्टि से संवाद की भाषा को व्यावहारिक स्वरूप बी देना पड़ता है। समय के बदलते चक्र में पात्रो के लड़ाई-जैसे स्थूल कार्य-व्यापारों को संकेतो के द्वारा व्यक्त किया जाने लगा। इन संकेतो को भी अब संवादों के द्वारा किया जाता है।
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प्रभावी संवाद को चुष्ट,चुटीला, मार्मिक और सुननेवाले पात्र के भीतर उद्द्वेग, उत्तेजना एवं प्रतिक्रिया जगाने में सक्षम होना चाहिए। जैसे कि जगदीशचंद्र माथुर की एकांकी 'रीड की हड्डी ' में उमा कहती है - ''क्या जवाब दूँ बाबू जी ! जब कुर्सी-मेज बिकती है. तब दुकानदार कुर्सी-मेज से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गयी तो अच्छा है, वरना ----- '' शिष्ट हास्य एवं व्यंग से समन्वित होकर संवाद यहाँ सजीव हो उठता है।
४ भाषा-शैली
भावो को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम भाषा है और अभिव्यक्ति ढंग शैली है। एकांकीकार विषय-तत्व के अनुरूप विशिस्ट भाष-शैली को अपनाता है। एक ही विषयवस्तु को लेकर विभिन्न विधाओं की तथा लिखी जा सकती है, लेकिन उसी विषयवस्तु को कवि अपने ढंग से प्रस्तुत करता है तो नाटककार अपने ढंग से और एकांकीकार अपने ढंग से।
अपने संवादों की भाषा-शैली के द्वारा एक कहानीकार उसी विषयवस्तु किसी अन्य परिणति तक पहुँचता है और एकांकीकार किसी अन्य परिणति तक। विषयवस्तु के प्रति लेखक का जैसा दृश्टिकोण होता है, उसकी अभिव्यक्ति के लिए वह वैसा ही माध्यम भी चुनता है। माध्यम के भिन्न हो जाने से भाषा-शैली भी भिन्न हो जाती है। सरल और बोधगम्य भाषा के द्वारा एकांकी को प्रभवशाली बनाया जा सकता है।
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साधारण-से-साधारण कथावस्तु में भी कुशल लेखक अपनी सुन्दर भाषा-शैली से प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है। ध्यातव्य है कि एकांकी की भाषा का प्रयोग पात्र की शिक्षा, संस्कृति, वातावरण एवं परिस्थिति के अनुरूप ही होना चाहिए. यदि पात्र का सामजिक और सांस्कृतिक स्तर ऊचा है तो भाषा शिष्ट और शैली परिष्कृत ही होती है।
यदि उसका सांस्कृतिक और सामजिक स्तर नीचा है तो उसकी भाषा और शैली में ये गुण दिखाई नहीं देंगे। सेठ गोविंददास द्वारा लिखित एकांकी 'सच्चा धर्म' में दिलावर खां और रहमान बेग के संवादों तथा पुरुषोत्तम और उसकी पत्नी अहिल्या के संवादों की भिन्नता में यह स्पष्ट दृश्टिगोचर होता है।
५ देश-काल और वातावरण
एकांकी में किसी विशेष देश-काल अथवा वातावरण से सम्बंधित पात्रो एवं घटनाओ का चित्रण होता है। यह चित्रण सजीव एवं स्वाभाविक तभी हो सकता है जब एकांकी की भाषा, पात्रो की वेश-भूषा, पात्रो की भाषा को उसी काल के अनुरूप रखा जाय।
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इसमें उस काल का सजीव एवं स्वाभाविक चित्र उपस्थित होता है और दर्शको की रसानुभूति तीव्र हो जाती है। जिस देश और काल के समाज को लेकर एकांकी रचा जाता है, उसमे सम्बंधित वातावरण, इतिहास, संस्कृति, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज आदि का सहज, स्वाभाविक और प्रामाणिक चित्र खींचा जाता है।
सम्पूर्ण परिस्थितियों की योजना साभिप्राय और क्रमिक ढंग से की जाती है और प्रकृति, स=ऋतु, दृश्य आदि का अत्यंत संक्षिप्त और सांकेतिक रूप में वर्णन करके किसी घटना अथवा परिणाम को सजीव एवं यथार्थ बना दिया जाता है। इसके आभाव में कृत्रिम, काल-दोष , अनौचित्य का प्रवेश न हो जाय, इस दृस्टि से देश-काल अथवा वातावरण के निर्वाह का एकांकी में अपना विशिस्ट महत्व है।
डॉ रामकुमार वर्मा के 'दीपदान' एकांकी को पड़ते या देखते समय वातावरण के निर्वाह की दृस्टि से हम कल्पना में भारत की १६वी शताब्दी के राजपूत सामंती युग में पहुंचकर प्रमुख पात्र पन्ना धाय के चरित्र में एक ऐसी स्वामिभक्ति पाते है, जो उस युग गौरवमय विशेषता थी।
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विष्णु प्रभाकर की ' सीमा-रेखा' एकांकी में समसामयिक परिस्थिति का एक चित्र प्रस्तुत करते हुए एकांकीकार संवादों और द्रुत गति से बदलती हुई स्थिति द्वारा ऐसा वातावरण बना देता है, जिसमे लष्मीचन्द्र,विजय और शरतचरंद्र तीनो भाई के स्वभाव का एकाएक परिवर्तन अत्यंत स्वाभाविक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य भी द्रस्तिगोचार होता है। ऐसे वातावरण-प्रधान एकांकी प्रभाव की दृस्टि से बड़े सजीव और मर्मस्पर्शी होते है।
६ उद्देश्य
एकांकी का उद्देश्य पुष्प में गंध की भांति उपस्थित रहता है। जिस एकांकी का उद्देश्य जितना लोक्मगलकारी होता है, उसका साहित्यिक मूल्य भी उतना ही अधिक बढ़ जाता है। एकांकीकार का उद्देश्य पात्रो के माध्यम से व्यंजित होता है।
'हिंदी साहित्य कोष' में उद्देश्य तत्व के सम्बन्ध में इस प्रकार वर्णित है - ''उद्देश्य वह तत्व है, जिसमे लेखक की इस सामान्य या विशिष्ट जीवन-दृस्टि का विवेचन होता है जो उसकी कृति में कथावस्तु के विन्यास, पात्रो की योजना, वातावरण के प्रयोग आदि में सर्वत्र निहित पायी जाती है।
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इसे लेखक का जीवन-दर्शन या जीवन दृस्टि या जीवन की व्याख्या या जीवन की आलोचना कह सकते है। '' एकांकी का केंद्रीय भाव ही वह हेतु या उद्देश्य है, जिसके लिए एकांकी ली जाती है। प्रत्येक एकांकी के पीछे कोई विशेष संवेदना, समस्या, भावना अथवा जीवन-दृस्टि होती है जिसे एकांकीकार सांकेतिक रूप में जाने-अनजाने अभिव्यक्ति देना चाहता है।
यही एकांकी में उद्देश्य तत्व है, जिसका स्पस्ट उल्लेख न तो आवश्यक है और न उपयोगी, पर जिसका स्वर एकांकी में आदि से अंत तक किसी-न किसी रूप में गूंजता रहता है।
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